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हाथों में चाय के गिलास, आँखों में दम तोड़ते सपनें, चौराहो पर कचरा उठाती मासूमियत, मेले-कुचैले कपड़ो में गरीबी दुबककर सोई हुई होती है। बच्चे अक्सर बचपन में जवान होने लगते है। स्कूल की दीवारों को निहारती नम आँखे, उम्मीद के दहलीज को लांघता हुआ मन, रोक देता है उसको, अरमानों का गला घोंट मासूम, फिर निकल पड़ता है, ईंट भट्टो की ओर, अधीर चेहरा, तलाशता है किसी आमिर की गाड़ी को, कान पक चुके है, घृणास्पद मशीनों के शोर से, मन उड़ना चाहता है , प्रकर्ति के आगोश में सिमट वो सोना चाहता है। मगर आँख लग जाती है उसकी, टूटी फूटी मशीनों के बिखरे डिब्बों में। मार देता है हर हसरतो को, बचपन में ही अक्सर बच्चे जवान हो जाते है।