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पीपल पेड़ तले बैठा वह - जूतों चप्पलों की बड़ी तल्लीनता से मरम्मत कर रहा था । गर्दन झुकी थी कठौती में जल था चमड़ा नरम हो रहा था फटे बोरे में फटे जूतों का ढेर था गले में ताबीज सिर पर गमछा था लोग चारों तरफ़ खड़े थे तेजी से हाथ चल रहे थे एक बजे दोपहर में उसी कठौती के पानी से हाथ धोए और एक बदरंग सा डिब्बा खोलकर सूखे साग के साथ राजसी भोजन किया और फिर आधे- पौन घंटे के लिए गले में पड़े गमछे को वहीं जमीन पर बिछा चैन की नींद सो गया , तरोताजा होकर फिर लग गया काम पर चेहरे पर अजीब सी शांति थी उसके सालों से इस काम को कर रहा था । अब तो उम्र ढलान पर थी मेरी चप्पल टांकने के बाद जब पैसे के लिए सर उठाया उसने तो मैं अचानक पूछ बैठी - दादा बड़ा कष्ट होता होगा तब वह बच्चों जैसा खिलखिला कर हंस पड़ा , और बोला - कष्ट कहे का यह तो मेरा काम है, मजे से खाता और जीता हूं चैन से सोता हूँ सुबह-शाम ईश्वर को धन्यवाद देता हूं वास्तविक खुशी कहां से आती है, जीना किसे कहते हैं उस दिन पीपल तले के राजा ने बता दिया ।