सपने सी बीत गई उम्र,
फिर भी न नींद खुली अपनी,
अब भी मृगतृष्णा के पीछे,
बेरोक नज़र गई अपनी।
कोई बन बैठा यूँ ही हस्ती,
कोई दे देता अपनी हस्ती,
ये खेल है खोने-पाने का,
खोना नहीं ख़ुशी अपनी।
ये रस्ते सब अनजाने हैं,
सब गैर हैं, सब पहचाने हैं,
चलना इन पर मज़बूरी है,
खोना राह नहीं अपनी।
जो बिछड़ गये बिसरा देना,
संगी का साथ निभा देना,
यूँ व्यर्थ भावना मत करना,
दूजे को ग़र रहे पड़ी अपनी।
‘अनिल’ कोई खुदा नहीं,
दुनिया वालों से जुदा नहीं,
पर जाने क्यों कुछ लोगों से,
कभी नहीं पटती अपनी।