संभावनाएँ और भी हो सकती थी....
व्यक्तिगत-विचार बदल भी सकते थे...
अंतर्मन के द्वन्द्व रुक भी सकते थे....
सामन्यतः वैचारिक मतभेद हो भी सकते थे...
परन्तु बिना परखे,बिना निरखे...
उन्होंने तो यही देखा....
ना जाने मुक्त होकर क्यों ?
उन्होंने ये नहीं सीखा...
भलामानस वही एक था,
जो सबकी बात करता था....
कही कोई स्वांग धरता था,
कोई प्रतिघात करता था...
बिगडते स्वप्न में भी जो,
नयी सी बात करता था....
कोई आघात करता था,
कोई संताप हरता था....
निराशा को बिना भेदे...
जो आशा साथ लाता था....
वो अपने मन को ही पूजे,
नया विश्वास लाता था....
वो अपने में सदा खोया....
कई रातों को ना सोया...
ना हो आश्रित,कभी रोया,
सफलता बीज जो बोया ....
वही एक था,हा वो ही था....
वसुधा का बड़ा बेटा....
ना सुख की छाँव में बैठा....
सदा जो धूप में लेटा.....
पुरातन स्वप्न को छोडो....
नया तुम भी तो कुछ जोड़ो...
उठो और झूम के गरजो...
धरा पे पूर्ण तुम बरसो....
यही सर्वस्व कहता हैं,.....
तेरा वर्चस्व कहता है....
तेरा संवाद कहता हैं.....
अधूरा वाद कहता हैं....
तो मन को शांत अब रखना....
किसे अब ये सुहाता हैं....
करोड़ो सूर्य सा अब तो,
तू हाँ आभा दिखाता हैं....
यही कहना मुझे अब तो,
बड़ा हाँ फिर सुहाता है...
तेरा सर्वस्व दे देना.....
मुझे हाँ अब लुभाता है....