
तुम्हारा अहं.. इतना क्यों चोटिल होता है? जब कभी मैं अपनी बात रखती हूँ.. तो तुम्हे ऐसा क्यों लगता है तुम्हारी बात काट रही हूँ..। एक होकर भी हमारी बात के अलग अलग नजरिये हो सकते है। सिक्के के दो पहलु हो सकते हैं। तुम्हारा अहं इतना क्यों चोटिल होता है? जब भी मैं तुम्हें सलाह देने की कोशिस करती हूँ.. भले ही मांगी ना हो तुमने. . चाही भी ना गयी हो.. पर मुझसे तो जुडी है तुम्हारी हर एक चीज। तो मैं दूर से मूकदर्शक बनी कैसे रह सकती हूँ। तुम्हारा अहं इतना क्यों चोटिल होता है? जब मैं किसी और से हंसकर दो बातें कर लेती हूँ.. मेरी पहचान से जुड़े कुछ ही तो रिश्ते होते हैं.. नहीं तो ताउम्र तुम्हारे ही तो नातों को निभाती जाती हूँ। तुरपनों को सींती रह जाती हूँ। तुम्हारा अहं इतना क्यों चोटिल होता है? जब भी तुम्हारी परछाईं होने से इतर मेरी अपनी पहचान बनती है.. तुम्हारी छाया बने रहना ही मेरी नियति नहीं हो सकती। परछाईं का भी वजूद हो सकता है यह स्वीकारना सीख लो। तुम्हारा अहं इतना क्यों चोटिल होता है? जब मैं लीक पर चलने से इंकार कर देती हूँ.. ईश्वर ने बुद्धि और विवेक मुझे किसलिए सौंपे होंगे.. बस यहीं से तो सोचना शुरू कर देती हूँ...। स्वीकार लो तुम मुझे मैं जैसी हूँ मैंने भी तो अपनाया है ज्यों का त्यों.. सब कुछ। बस तुम्हारा अहं नहीं अपना पा रही हूँ.. पर तुम मेरे हो.. खुलकर कह पा रही हूँ।