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दादी की पोती दौड़ रही आॅगन से द्वार को द्वार से दुकान को खेत से खलिहान को गाॅव से गिराॅव को अॅगुली पकड़ कर दौड़ती दौड़ाती दादी के पाॅव को। दादी के ढ़िग बैठ बात करे ढ़ंग की कभी कहे सच सच कभी मन गढ़ंत की पढ़ लेती मुख देख दादी के भाव को अॅगुली पकड़ कर दौड़ती दौड़ाती दादी के पाॅव को। दादी की बन गयी वह सचिव है सहेली है सो न जाय तब तक बूझती पहेली है बिन उसके दादी भी निपट अकेली हैं जिद करती घूमने को दादी से गाॅव को अॅगुली पकड़ कर दौड़ती दौड़ाती दादी के पाॅव को। दादा की मूछों को पूरती है घूरती है कन्धे पर चढ़कर कान मड़़ोड़ती है ऐनक उतार निज कानों पर रखती है बन गयी है मरहम दादा के घाव को अॅगुली पकड़ कर दौड़ती दौड़ाती दादी के पाॅव को। घर लौटे पापा की स्यूत है सम्भालती रुठी पड़ी दादी व रुठी पड़ी जननी में सम्वाद लाती है सन्तप्त जेठ की वह मेघ बरसाती है बारिश में तैराती कागद की नाव को अॅगुली पकड़ कर दौड़ती दौड़ाती दादी के पाॅव को। भोजनार्थ दौड़ दौड़ सबको बटोरती है जूठे पड़़े बर्तनों को खुद ही समेटती है सहेजती अकेले ही घर के मनोभाव को अॅगुली पकड़ कर दौड़ती दौड़ाती दादी के पाॅव को।