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समझाती हूँ त्यागू' दुख को,कर्म कर चलूँ पुनः जगत् में; करूँ भलाई दुखियारोकी,खोजूं प्रेम शरण आगत में; आश्वासन दे बार -बार, वह शायद मुझे टटोल रहा है! किन्तु सोंचती हूँ अब यह,मैं ही त्यागू यदि निज तन-मन; जग भी वैसा कभी करेगा,झूमेंगा क्या सूना उपवन; मस्त हो चला अपनें में ही,उलझ गये को खोल रहा है; मन का पंछी बोल रहा है!