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ज़माने ने की उल्फत, मैंने क्या गुनाह किया, किसी के वास्ते, खुद को था बर्बाद किया। वो बनें न बनें शरीक-ए-हयात, परवाह नहीं, हमने तो दर पे उनके सजदा बेहिसाब किया। यूँ तो सभी से बेलगाम करते-फिरते हैं गुफ्तगू, हमसे ही दिल की कहने से क्यों हिजाब* किया। घर मेरा ही क्यों उजड़ा था तेरी बेरुखी से, बाकी शहर पर तो तुमने अब्रेबहार** किया। जो कह नहीं पाये थे हम तेरे रूबरू हो कर, उन्ही बातों को अपनी कलम का अल्फाज किया। *हिजाब - संकोच **अब्रेबहार – वसंत ऋतू का मेघ