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मैं शहर में कैद हूँ ये शहर अब नहीं भाता, बुलन्द दीवारों के कारण निकल नहीं पाता। पत्ती शहतूत की है और ककून सा हूँ मैं, खुले दरवाजों से भी अब कोई नहीं आता। मेरी कमजोरियां नश्तर हैं उनके हाथों में, इसी कारण किसी महफिल मे मैं नहीं जाता। शेर के आगे एक चारा सा बंधा बैठा हूँ, डरा हुआ हूँ मैं चारा भी अब नहीं खाता। दुश्मनी ठान ली बन्दूक से तो मरना है, कलम थी आग ताजों से रखा नहीं नाता। .........’’’.........