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पत्ती ने जिस दिन पौधे की जड़ को जड़ कह कर धमकाया। फूलों ने खुद को पौधे का भाग्य विधाता बतलाया। इठलाकर निज रूपरंग पर फुनगी ने डाली को टोका। लहरों ने सागर से मिलने को आतुर नदिया को रोका। सागर से यूं नदिया जब-जब, सहमी-सहमी दूर हुई है। तब-तब मेरी कलम लहू से लिखने को मजबूर हुई है।। 01।। बूढ़ा बरगद आन फंसा जब कुक्करमुत्तों की चालों में। गीदड़ शेर बने गुर्राये छुप-छुप के मृगछालों में। कौए आंख दिखा कोयल को मौन हेतु मजबूर करे। हंस उपेक्षित राजसभा में, न्याय-छत्र सिर गिद्ध धरे। पद के मद ने जब-जब हद की, कुरसी जब मगरूर हुई है। तब-तब मेरी कलम लहू से लिखने को मजबूर हुई है।। 02।। जिस थाली में खाया उसी को, चाट-पूंछ कर ठोकर दी। धन को सब कुछ मान जिन्होंने मनमानी की हद कर दी। रिश्ते नाते रहे रिराते, मां से घातें कर बैठै। अरुण प्रभा को अत्याचारी, काली रातें कर बैठै। उपकारों पर अपकारों की बौछारें भरपूर हुई है। तब-तब मेरी कलम लहू से लिखने को मजबूर हुई है।। 03।। दंद-फंद का दौर निराला भवबंधन से भारी है। मर-मर डर-डर समय बिताना सज्जन की लाचारी है। कौशल वालों की बस्ती के आज कनस्तर खाली हैं। पहरेदारों में बहुतों के खुद के कागज जाली हैं। छंद फंसे जब छल-छंदों में, हरिचंदों (हरिश्चंद्रों) की धूर हुई है। तब-तब मेरी कलम लहू से लिखने को मजबूर हुई है।। 04।। सरे आम सौदों में हमने ओहदों को बिकते देखा है। पॉवर के कदमों प्रतिभा को सजदों में झुकते देखा है। राजनीति के कृष्ण युधिष्ठिर तक को इस में पेल गए। धर्मराज भी नर-कुंजर का खेल घिनौना खेल गए। चित्रगुप्त तक के चिट्ठों में भरपाई भरपूर हुई है। तब-तब मेरी कलम लहू से लिखने को मजबूर हुई है।। 05।।