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गुमनाम रिश्ते का भार ढो रहा हूँ । अपनी कामना का संसार ढो रहा हूँ । सुखद अनुभव का जो स्वप्न कभी देखा था , उस कीमती पल का इंतज़ार ढो रहा हूँ । सदियां गुजर गयीं हैं लब पर हंसी न लौटी , आँसुओं का अब तक उपहार ढो रहा हूँ । निकलने से ही पहले जो नीलाम हो गयी है , उस सुबह की परछाईं के अधिकार ढो रहा हूँ । खामोश है समंदर और हवा भी ठहर गयी है , किश्ती में "अमरेश" मैं पतवार ढो रहा हूँ ।