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मन मन्दिर में खण्डित बुत कई पड़े हुये हैं कुछ बाहर, कुछ मन के अन्दर गड़े हुये हैं। उन्हें खोदता रहता हूँ, जब चुप रहता हूँ, कुछ कांटों कुछ हीरों जैसे जड़े हुये हैं। कई तूफानों को रोका बाहर आने पर, तब भी कुछ बाहर आने उठ खड़े हुये हैं। मैंने कुछ रिश्ते तोड़े हैं उन्हें बचाने, मेरे मन महलों पर वे बुत चढ़े हुये हैं। पुरातात्विकविद कुछ आते हैं मन पढ़ने, मनोचिकित्सा पढ़ कर वे सब बढ़े हुये हैं।