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घर वापस जाने की सुध बुध बिसराता है मेले में लोगों की रौनक में जो भी खो जाता है मेले में किसको याद आते हैं घर के दुखड़े,झंझट `औ`झगड़े हर कोई खुशियों में खोया मदमाता है मेले में नीले - पीले , लाल - गुलाबी पहनावे हैं लोगों के इंद्रधनुष सा सागर जैसे लहराता है मेले में सजी - सजायी हाट - दुकानें खेल - तमाशे `औ` झूले कैसा - कैसा रंग सभी का भरमाता है मेले में कहीं समोसों , कहीं पकोड़ों , कहीं जलेबी की महकें मुँह में पानी हर इक के ही आ जाता है मेले में ज़ेबे खाली कर जाते हैं क्या बच्चे `औ` क्या बूढ़े शायद ही कोई कंजूसी दिखलाता है मेले में तन `औ` मन की मदमस्ती के क्या कहने,क्या ही कहने जब भी कोई मीत पुराना मिल जाता है मेले में जाने - अनजाने लोगों में फ़र्क़ नहीं दिखता कोई जिससे बोलो वो अपनापन दिखलाता है मेले में डर कर हाथ पकड़ लेती है हर माँ अपनी बच्चे का ज्यों ही कोई बिछुड़ा बच्चा चिल्लाता है मेले में ये दुनिया `औ` दुनियादारी एक तमाशा है भाई हर बंजारा भेद जगत के समझाता है मेले में रब न करे कोई बेचारा मुँह लटकाये घर लौटे जेब अपनी कटवाने वाला पछताता है मेले में राम करे हर गाँव - नगर में मेला हर दिन लगता हो निर्धन और धनी का अंतर मिट जाता है मेले में