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स्कूल से घर आने पर मेरे पुत्र ने मुझसे शिकायत की, ' पापा, पापा, वह अपने यहाँ जो नौकरानी आती है, उसके बच्चे ने मेरा चॉक चुरा लिया। आप उसको डाँटिए । '
मैंने बहलाते हुए कहा, ' कोई बात नहीं है। मैं स्कूल से दूसरा चॉक ला दूँगा। '
दूसरे दिन मैं चॉक लाना भूल गया। पुत्र ने वही शिकायत फिए दोहराई।
मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी और उसका ध्यान दूसरे किसी काम में लगा दिया।
रात को पत्नी ने भी सोने से पूर्व वही शिकायत फिर दोहराई।
मैंने कहा, ' क्या तुम अंदाज़ा लगा सकती हो कि मैं नौकरनी के बच्चे को डाँटने का साहस नहीं जुटा पा रहा हूँ। '
पत्नी ने कहा, ' मैं क्या जानूँ । फिर भी तुम अंदाज़ा लगाने की कह रहे हो, तो बताऊँ। '
मैंने कहा, ' हाँ, हाँ, बताओ न।
पत्नी ने मुस्कराते हुए कहा, ' बुरा तो नहीं मानोगे?
मैं ने कहा, ' इसमें बुरा मानने की क्या बात है।'
पत्नी ने कहा, 'तो सुनो। नौकरनी सुंदर है, जवान है। तुम जैसा दिल फेंक आदमी उसके बच्चे को कैसे डाँट सकता है?'
मैंने गंभीर होकर कहा, ' मज़ाक़ छोड़ो, बी सीरियस। '
पत्नी ने कहा, ' इसमें सीरियस होने की क्या बात है?'
मैंने ज़ोर से कहा, ' है, तुमने कभी सोचा है कि जो चॉक मैं स्कूल से लाता हूँ , वह भी तो एक चोरी है। मेरी चोरी, चोरी नहीं है क्योंकि मैं पढ़ा-लिखा इज़्ज़तदार हूँ। नौकरनी के बच्चे की यही घटना चोरी है, क्योंकि वह साधनहीन और गरीब है। '
थोड़ी देर खामोशी रही। पत्नी ने ही खामोशी को तोड़ा, ' बात तो तुम्हारी शत-प्रति-शत सही है।…फिर भी अपराध-बोध छोड़ो। कल बाज़ार से दो चॉक के डिब्बे खरीद लाना --एक अपने बेटे के लिए और एक अपनी नौकरनी के बच्चे के लिए।
मैंने गहरी साँस लेते हुए कहा, ' सुझाव के लिए धन्यवाद। प्रायश्चित का इससे अच्छा तरीक़ा और क्या हो सकता है। '