जले हुये मकान और बिखरी हुई लाशों से भरी गली मे, छुप-छुप कर दबे पांव बढ़ता हुआ एक आदमज़ाद… । छुप कर ताक मे बैठे दो
चेहरों की नज़र मे आ जाता है । वे जल्दी से अपनी बन्दूकें तान लेते हैं ।
“क्या कहता है, खोपड़ी खोल दूं ?” एक पूछता है ।
“अबे, पहले देख तो ले दोस्त है, या दुश्मन ।“ दूसरे ने कहा ।
“क्या फ़र्क पड़ता है, दोस्त हो या दुश्मन, क़त्ल तो इन्सानियत का ही होना है ।“
“परिणाम की सोच्… ।“
“परिणाम है नफ़रत, इधर बढ़े या उधर बढ़ना तो नफ़रत को ही है । गोली चला… ।“
धांय्… ! एक गोली … और वह ज़मीन पर गिर पड़ा । सिर से लाल खून का फ़व्वारा फ़ूटा और ज़मीन पर बह निकला । दोनो ने नफ़रत
से मुंह दूसरी तरफ़ फ़ेर लिया ।