भड़भुंजा उदास था । उदास क्या ? शायद वह डिप्रेशन मे था । वह भाड़ झौंकते हुये बड़बड़ाये जारहा था- “ज़िन्दगी गुज़र गयी भाड़ झोंकते । क्या पाया ? दुनिया देखो कहां से कहां पहुंच गयी ।“
उसके सर से निकलती पसीने की धार उसके चेहरे से होते हुये , उसकी भाड़ की रेत मे गिर रही थी जिसमे वह चने भून रहा था । भाड़ की गर्मी से उसका चेहरा और हाथ झुलसकर काले पड़ चुके थे ।
मैने कहा- “चचा , भाड़ गरम हो तो ज़रा चने भून दो । गरमा गरम फ़ुटाने ( फ़ूटे हुये चने ) चाहिये ।“
“मियां , तुम तो बस चने ही भुना लो । और तो कुछ सूझता नहीं ।“ उसने बड़ी तल्खी से कहा ।
“और क्या भुना लूं चचा ?” मैने पूछा ।
“देशभक्ति । मियां , देशभक्ति ही आज कल हॉट है । देखो देशभक्ति भुना कर लोग कहां से कहां पहुंच गये … पद्मभूषण … पद्मविभूषण … हासिल कर लिया । और तुम बस चने भुनाते रह गये । जाओ जाओ देशभक्ति भुनाओ । फ़ुटाने खाकर कौन सा तीर मार लोगे ।“
“लेकिन चचा ! किस भाड़ मे जाऊं , कहां कहां भुनाऊं ।“
“राजनीति मे जाओ । मीडिया मे जाओ । बड़े बड़े भड़भुंजे बैठे हैं वहां । आज की डेट मे यही सबसे बड़ी भाड़ है…”
तभी उनका बेटा बाहर निकल आया । वह गबरू नौजवान बड़े तल्ख लहज़े मे बोला- “और आपको बड़ी जल्दी अक्ल आगयी
ज़िन्दगी भर बस भाड़ झोंकते रहे…”
चचा का पसीना बहकर भाड़ की रेत मे गिरने लगा , जिसमे वे चने भून रहे थे ।