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मेरा 'पर' मत नोचना,बाकी बहुत उड़ान रहते हुए जमीन पर , नभ की चाह समान कैदी आशाराम की ,हिचकोले में नाव दुर्गति की अब जाल से,कैसे करें बचाव निर्मल बाबा ये बता,कहाँ कृपा में रोक शक्ति -भक्ति दो नाम की ,चिपक गई है जोंक कैदी आशाराम को ,मिला न तारनहार हर गुनाह ले डूबता,हिचकोले पतवार एक सबक ये दे गया, कैदी आशाराम कोई बाबा दे नहीं,याचक को आराम अतुलित बल या ज्ञान का ,मिला जहाँ अतिरेक समझो आशाराम सा ,निष्ठुर बना विवेक अगर छलकता ज्ञान हो ,रखो उसे सम्हाल दुर्गति के आरंभ में ,करें जांच -पड़ताल मेरे हिस्से में नहीं ,कोई राख-भभूत इसी बहाने जानता ,पाखण्डी करतूत कैसे बेचें सीख लो , बात-बात में राम मंदी में मिलने लगे,गुठली के भी दाम बार-बार गलती वही ,दुहराते हो मित्र शायद दुविधा के कहीं ,उल्टे पकड़े चित्र महुआ खिला पड़ौस में ,मादक हुआ पलाश किस वियोग में तू बना ,चलती फिरती लाश मायावी जड़ खोदना,चढ़ना सीख पहाड़ वज्र सरीखे काम हैं ,जान दधीची हाड़ आओ मिल कर बाँट लें, वहमों का भूगोल कहीं रखूं नमकीन मैं ,कुछ चीनी तू घोल काशी मथुरा घूम के ,घूम हरी के द्वार कोस दूर कानून से , यूपी और बिहार करें प्रेम की याचना ,मिल जाए तो ठीक वरना दुखी जहान है ,आहिस्ता से छींक इस रावण को मारकर ,करते हो कुहराम | भीतर तुम भी झाँक लो,साबुत कितना राम || # रावण हरदम सोचता,सीढ़ि स्वर्ग दूं तान | पर ग्यानी का गिर गया ,गर्व भरा अभिमान || # रावण करता कल्पना ,सोना भरे सुगन्ध | पर कोई सत कर्म सा,किया न एक प्रबन्ध || # सीढ़ि स्वर्ग पहुचा सके ,रावण किया विचार | आड़ मगर आता गया ,खुद का ही व्यभिचार ||` # रावण बाहर ये खड़ा ,भीतर बैठा एक| किस-किस को अब मारिये, सह-सह के अतिरेक|| प्रीत-प्यार इजहार में,थे कितने व्यवधान वेलेंटाइम ने किया , राह यही आसान आये हैं अब लौट कर . हम अपने घर द्वार दुविधा सांकल खोल दो ,प्रभु केवल इस बार टूटे मन के मोहरे ,चार तरफ से तंज कैसे दुखी बिसात पर ,खेले हम शतरंज खुद को शायद तौलने,मिला तराजू एक समझबूझ की हद रहें , खोये नहीं विवेक भीतर कोई खलबली ,बाहर कोई रोग लक्षण सभी हैं बोलते ,हुआ बसन्त वियोग संभव सा दिखता नहीं,हो जाए आसान शुद्र-पशु,ढोंगी-ढोर में ,व्यापक बटना ज्ञान # सक्षम वही ये लोग हैं,क्षमा किये सब भूल शंका हमको खा रही ,बिसरा सके न मूल # संयम की मिलती नहीं,हमको कहीं जमीन लुटी-लुटी सी आस्था ,है अधमरा यकीन # इतने सीधे लोग भी ,बनते हैं लाचार कुंठा मजहब पालते ,कुत्सित रखें विचार # कुछ दिन का तुमसे हुआ ,विरहा,विषम,वियोग हम जाने कहते किसे,जीवन भर के रोग # दिन में गिनते तारे हम ,आँखों कटती रात यही बुढ़ापे की मिली ,बच्चो से सौगात सुशील यादव दुर्ग कहाँ-कहाँ पर ढूढता ,जीवन का तू सार दुश्मनी के अम्ल सहज ,डाल दोस्ती क्षार उजड़े -उखड़े लोग हम ,केवल होते भीड़ सत्तर सालों बाद भी ,सहमा-सहमा नींड मन की हर अवहेलना,दूर करो जी टीस व्यवहारिकता जो बने ,ले लो हमसे फीस बीते साल यही कसक ,हुए रहे भयभीत। कोसों दूर हमसे रहे,सपने औ मनमीत।। सुख के पत्तल चांट के,गया पुराना साल दोना भर के आस दे,बदला रहा निकाल भारी जैसे हो गए,नये साल के पांव खाली सा लगने लगा,यही अनमना गांव साल नया स्वागत करो ,हो व्यापक दृष्टिकोण अंगूठा छीने फिर नहीं ,एकलव्य से द्रोण मन की बस्ती में लगी ,फिर नफरत की आग जिसको देना था दिया ,हमको गलत सुराग मंदिर बनना राम का ,तय करते तारीख चतुरे-ज्ञानी लोग क्यों,जड़ से खायें ईख खोया क्या हमने यहॉं ,पाया सब भरपूर तब भी हमको यूँ लगे ,दिल्ली है अति दूर जागी उसकी अस्मिता,उठा आदमी आम कीमत-उछले दौर में ,बढ़ा हुआ है दाम अपनी दुकान खोल के,कर दे सबकी बन्द राजनीति के पैंतरे ,स्वाद भरे मकरन्द