
सार्थक प्रयास के बाद भी कुछ तो ऐसा था, जो उसकी तरक्की में अवरोध उत्पन्न कर रहा था। वो हर दृष्टिकोण से इस बारे में सोचता मगर मूल कारण को समझ पाने में असक्षम था। जूनियर होते हुए भी शर्मा जी की हुई तरक्की से अचंभित था, खैर छोड़ो ये तो पिछले वर्ष की बात है। मगर आंख तब खुली जब वर्मा जी ने मिठाई पकड़ाते हुए कहा, ‘‘मेरी तरक्की हो गई यार। मेरी सैलरी भी बढ़ गई।’’ चेहरे पर खुशियों की लाली दौड़ पड़ी। उसने क्रोधाभाव लाते हुए कहा, ‘‘सिनीयरिटी में तो मेरा नाम था, तुम्हारा तो दूर-दूर तक नहीं था।’’
वर्मा जी ने आंखें तरेरीं और कहा, ‘‘वो हमको नहीं मालूम। तुम अपना मुंह मीठा करो, मेरा मुंह क्यों तीखा करते हो?’’
अपनी कुर्सी पर धड़ाम से गिरते ही उसको अचानक याद आया कि मैंने व्यवस्था के वादों को उजागर करते अपने भाषण में बहुत-सी खिलाफत कर दी थी। मैनेजर की नाराजगी का कुफल भोगना पड़ा था।
मैनेजर साहब ने ट्रांसफर होते कहा, ‘‘तुम्हारे कारण मेरी ऊपरी आमदनी को नुकसान पहुंचा था। ढंग से जीना सीख लो।’’
अब उसने ढंग से जीना सीख लिया है। आदर्शों का चोला उतारते ही, वर्तमान व्यवस्था में कोई अपंगता नहीं नजर आने लगी। खिलाफत तो आई-गई बात हो गई।
अब वो अपनी कंपनी में प्रबंधक के पद पर पदासीन है।