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शोकाकुल अवस्था में शुक्ला जी बेड पर लेटे हुए थे। कमरे में भयानक सन्नाटा पसरा हुआ था। पत्नी के आकस्मिक निधन ने उन्हें गहराई तक तोड़ दिया था। शुक्ला जी पत्नी के संग बिताए दिनों को याद कर ही रहे थे कि दरवाजे पर दस्तक हुई।
बेड पर लेटे-लेटे ही शुक्ला जी ने आवाज लगाई, ‘‘खाना टेबल पर रख दो बहू, बाद में खा लूंगा।’’
टेबल पर गिलास के गिरने की आवाज से शुक्ला जी उठकर बैठ गए और आश्चर्य से मंगलू की तरफ देखने लगे।
शुक्ला जी ने अपने मन को मनाया कि हो सकता है बहू किसी काम में व्यस्त हो।
खाना खाकर शुक्ला जी फिर अतीत की स्मृतियों में खो गए।
पुरानी यादों से बाहर आकर शुक्ला जी सोच ही रहे थे कि यहां तो सब कुछ जाना-पहचाना है। कुछ दिनों के बाद बेटा और बहू के साथ शहर चला जाऊंगा तो सब कुछ वहां बदला-बदला सा अनुभव होगा। पुराने लोग छूट जाएंगे, नए लोग मिलेंगे। शहरी वातावरण में खुद को ढालना होगा।
यहां की संपत्ति बेचकर बेटे को दे दूंगा। आखिर मेरा भरण-पोषण संजय को तो ही करना है।
ध्यान भंग होते ही फिर मंगलू पर नजर पड़ी तो शुक्ला जी ने गुस्साकर पूछा, ‘‘क्यों रे, अभी तक यहां क्यों खड़ा है?’’
मंगलू की आंखों में आंसू देखकर शुक्ला जी सहज भाव से बोले, ‘‘अरे पगले, रोता क्यों है रे? बाद में तुमको भी शहर ले चलेंगे।’’
मंगलू ने जवाब दिया, ‘‘मालिक, अब हम लोग यहीं रहेंगे। संजय और बहूरानी दोपहर में ही निकल गए और कह गए कि बाबूजी का खयाल रखना। आपके भरोसे छोड़कर जा रहे हैं।’’ मंगलू की आंखें अश्रुधारा बहाने लगीं।
अब इतने बड़े शोक को कौन-सा शोक प्रभावित कर सकती है। शुक्ला जी ने इस बात को नजरअंदाज कर दिया और सूख चुकी आंखों में फिर पानी आ गया और उसमें तैरने लगे ‘अकेलेपन का दर्द’ और जीवनसाथी की यादें।