
शहर के निकट एक प्रसिद्ध मंदिर जहां लोग हमेशा मन्नत मांगते आते ।वहां सभी जाति-संप्रदाय के लोग आते और भगवान को हाथ जोड़ प्रसाद आदि चढाकर अपनी इच्छा रखते । मैं मंदिर में भगवान की पूजा आदि कर बाहर सीढियों पर बैठा था ।मंदिर में घंटियों की आवाजें मस्तिष्क में एक कंपन पैदा कर रही थी ,चिंतन मग्न था।नास्तिकता-आस्तिकता आदि पर गहरे अन्वेषण में खो गया, तभी वहा एक व्यक्ति जिसकी लंबे समय से कोई मनोकामना पूर्ण हुई अपने हाथों से बने हलवा आदि का भोग लगाकर आस्था के साथ सबको प्रसाद वितरण करने लगा तभी कुछ नया चिंतन मन में उकरने लगा। सभी लोग उसके प्रसाद को हाथ जोड़ नकार रहे थे मैने सोचा जिस प्रसाद को भगवान ने स्वीकार किया ,उसको लोग नकार क्यों रहे है, यह भी सच है कि लोग परमात्मा का स्थान नहीं ले सकते ।हम सभी उस परमात्मा की रचित सृष्टि के अंश है,तभी चिंतन स्थिर हो गया । शायद वह व्यक्ति निम्न वर्ण का हो।शायद हम आस्था का ढोंग तो नहीं कर रहे ।
मेरे मन मस्तिष्क में कबीर आने लगा ।उसकी एक एक साखी रेखाचित्र बना रही थी।संवेदना सही है पर हम समझे तो वसुधैवकुटंबकम ।हम कैसा परहेज रखते है और कैसा रखना चाहिए।चिंतन है आज का।