
सभ्यता में पहले मन्दिर नहीं थे पहले घर बना इस आधार पर यदि विचार करने बैठें तो मनुष्य देवताओं से पुरातन ठहरता है लेकिन हम सभ्य सुसंस्कृत लोग जो आस्थावान हैं ईश तत्त्व के प्रति नहीं सोचना पसंद करते हैं इन पक्षों पर घर मनुष्यों ने खुद बनाया बसाया भी मंदिर बने राजाज्ञा से श्रम भले ही किया हो मनुष्यों ने अर्थ दान भी किया हो उस पर अधिकार मनुष्यों का नहीं था कभी वह देवस्थान ही हुआ अब, चूँकि देवता होते नहीं होते हैं मनुष्य किन्तु आरोप करना उतना भी नहीं था कठिन कुछ मनुष्य ठहराए गए देव तुल्य मन्दिर भले ही घर न था, एक खूबसूरत मकान और इसलिए अचल संपत्ति के रूप में पहले दिन से था देवता थे नहीं नाम था देवता का सो देवता के लिए जो चाहिए था नाम मात्र चाहिए था किन्तु स्मरण रहे मन्दिर घर नहीं था जो मन्दिर जाता है वो घर नहीं, मन्दिर जाता है मन्दिर का एक पुजारी होता है देवता अधिष्ठित होते हैं मन्दिरों में जो अपने भक्तों से चढ़ावा चाहते हैं इसके बदले वे पूरी करते हैं मनोकामनाएँ मनुष्य मनुष्य पर यकीन नहीं रखता देवता पर रखता है जबकि जानता है वह कि नहीं जानता है वह धीरे धीरे मंदिर हो जाता है घरों से बहुत अधिक मजबूत कि भूकंप में गिर जाते हैं घर मन्दिर रहते हैं अक्षुण्ण यह देवताओं की महिमा है तो भी, मन्दिर घर नहीं होता घर टूटता है तो कुछ लोग बेघर हो जाते हैं मन्दिर के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता