
अपनी नज़र से देख लें
बृज राज किशोर 'राहगीर'
ज़िन्दगी को आज हम, अपनी नज़र से देख लें। इस तरफ़ से देख लें, या फिर उधर से देख लें। इस क़दर ढोते रहे हैं, हम ज़माने के सितम; दिख रहे हैं कुछ ज़ियादा ही उमर से, देख लें। भर रहा है वो तिजोरी, सात पुश्तों के लिए; मर गए भूखे हज़ारों इस असर से, देख लें। सच हमेशा हाकिमों की आँख की है किरकिरी; कर दिया है बेदख़ल उसको शहर से, देख लें। हुस्न बेपर्दा हुआ था, आज छत पर दोपहर; रह गए महरूम हम ही इस ख़बर से, देख लें। क्या ज़रूरत है कि अपना ज़िक्र ख़ुद करता फिरूँ; महफ़िलें आबाद हैं मेरे हुनर से, देख लें। किस लिए नाराज़ हैं वो, इस क़दर 'बृजराज' से; रूखसती को हो गये तैयार घर से, देख लें।