
दुःखों की सिर्फ चढ़ान थी, ढलान का तो काई सिरा ही नजर नहीं आ रहा था। दुःखों से लड़ने के लिए कसी हुई कमर में अब कसाव नहीं था। हरनंद अब सब कुछ भगवान के भरोसे छोड़कर घर में बैठना चाह रहा था, बुखार का भी कुछ अंष सवार हो आया था। कउवा के कांव-कांव करने के बाद भी न जागता हुआ देखकर उसकी पत्नी गायत्री ने कहा ’’ सोते ही रहेंगे? खेत में नहीं जाना है क्या?’’ आवाज में अनुरोध कम और कर्कशता का भाव हो आने पर हरनंद ने सोचा कि आज झगड़ा हो ही जाए, और एक बार आवाज लगाई तो एक तमाचा लगाउंगा, मेरे बुखार की भी प्रवाह नहीं है, पिसते रहो कोल्हू के बैल की तरह।’’
उसकी आठ वर्षीय बेटी ने जगाया और कहा ’’ बापू टीचर ने कहा कि स्कूल की फीस ले आना तब पढ़ना।’’ बोलकर रोने लगी, तो हरनंद उठ बैठा और अपनी पत्नी से कहा ’’ तुमने जगाया क्यांे नहीं? खुद अपने भी सोती रहती हो और हमको भी नहीं जगाती हो। ’’ हरनंद की आवाज तो गुस्से से भारी थी लेकिन आँख स्पष्ट कह रही थी ’’ कविता के माँ, तुम ठीक कहती हो। ’’ और बैलों को खोलकर चल दिया महाजन के खेत में गाते हुए ’’ बैल, मैं घर का बैल, मैं कोल्हू.........।’’