
नीरव संवाद
सृष्टि सिंह
नीरवता के शून्य सदन में जब भी तुमको याद किया। तुम बिन तुमसे एकाकी में निशिदिन ही संवाद किया।। प्रिय ! तुम बिन तुम क्या जानो ये जीवन कैसे बीता? जैसे प्राण बिना तन हो और कृष्ण बिना हो गीता। तुम बिन सीता बन के मैंने चिर विरह वनवास जिया। नीरवता के शून्य सदन में जब भी तुमको याद किया।। तुम बिन सूना मन का अम्बर और जलते हैं दृग तारे। पलक बिछा प्रिय ! पथ पर हमने है कितने युग हारे। पीड़ाओं से सींच हृदय को कोमल से पाषाण किया । नीरवता के शून्य सदन में जब भी तुमको याद किया।। तुम बिन संध्या के आँचल में साँसों का सूरज ढलता। नयनों के विस्तृत आँगन में अगणित स्वप्न है पलता। अम्बक जल से धूप बुहारा दिन को मैंने रात किया। नीरवता के शून्य सदन में जब भी तुमको याद किया। तुम बिन जीवन के आत्म पृष्ठ पर गूँथी कल्प कथाएँ। कविताओं के अक्षर अक्षर से मैंने बाँची मनो व्यथाएँ। प्रति क्षण साँसों ने मेरी,तेरे नाम का अंतर्नाद किया। नीरवता के शून्य सदन में जब भी तुमको याद किया।