
कितने स्वछन्द से फिरते हो तुम जन-मानस से डरते हो तुम खुला आकाश तुम्हारा पथ है नन्हें पंख तुम्हारा रथ है ना भूत, भविष्य की चिंता है ना कोई विरासत खोने का भय न चूल्हे की आग न लकड़ी जलाना वृक्षों के फल ही तुम्हारा है खाना बस पंखों को तुम्हारे उड़ान है भरनी जीवन भर तुम्हारी बस यही है करनी विरासत में न तुम्हें है कुछ भी मिलता स्वयं के ही परिश्रम से घरोंदा है बनता फुदकते हो जब तुम मन को हर्षाते मानव जीवन में उल्लास हो भरते हो भोले तुम और कितने निराले पंखों में तुम्हारे प्रभु ने अनेक रंग डाले न कड़वे वचन और न ही मन के काले मंदबुद्धि है मानव जो तुमसे न सीखा थोड़े में रहना और कभी कुछ न कहना भिन्न भिन्न आवाजों से मन को तुम हरते छोटी सी गर्दन घुमा, सब कुछ समझते अगर तुम न होते दुनिया में हमारी होता सूना ये आकाश और वृक्षों की डाली सजाते रहो तुम जहाँ ये हमारा सदा ही पनपे ये घरौंदा तुम्हारा |