
कुहरे ने बारात चढ़ाई
डॉ राकेश चक्र
कुहरे ने बर्फीली चादर मौसम को है पहनाई। सूरज दादा दुबके हैं उसमें मोटी लिए रजाई।। घोड़े उनके बलशाली हैं फिर भी हारे कुहरे से। प्रकृति , पंछी मौन पड़े हैं कुहरे के ही पहरे से।। ऐसा लगा मुए कुहरे ने, सब दुनिया है भरमाई।। सूरज दादा दुबके हैं उसमें मोटी लिए रजाई।। सीले - सीले घर आँगन हैं दाँत किटिकिटी करते हैं। गजक, रेबड़ी और मूँगफली तन - मन में रस भरते हैं।। बुलबुल कहती कौवा से कुहरे ने बारात चढ़ाई।। सूरज दादा दुबके हैं उसमें मोटी लिए रजाई।। संक्रांति, लोहड़ी खुशियाँ लाए नए - नए मिष्टान बने। बच्चे भी हर्षित हैं सारे हर घर की ही तान बने।। मूँग पकौड़ी गरम चाय सँग सूरज जी को खिलवाई।। सूरज दादा दुबके हैं उसमें मोटी लिए रजाई।। कुहरा सबको जकड़ - पकड़ कर घर में कैद करा देता। बूढ़ों को ज्यादा धमकाता आकर रोज डरा देता।। सूरज निगलें जब कोहरे को तभी प्रीत भर जाई।। सूरज दादा दुबके हैं उसमें मोटी लिए रजाई।।