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पंचतत्त्व से है बना, यह अनमोल शरीर । इसमें ही बैठा हुआ, पीरों का भी पीर ।। काया माटी-सी चढ़ी, कुम्भकार के चाक । गीली मिट्टी घूम-फिर, हो जाती है ख़ाक ।। अपने अन्दर झाँककर, देखो तो इक बार । अगर बुलावा आ गया, क्या तुम हो तैयार? अपनों से तो जीत भी, लगती जैसे हार । जीत लिया खुद को अगर, जीत लिया संसार ।। इधर उड़ा पंछी, उधर, सभी हो गये दूर । अपने भी अपने नहीं, दुनिया का दस्तूर ।। एक दिवस है आदि तो, एक दिवस है अन्त । दो दिवसों के मध्य में, जीवन भरा अनन्त ।। राजा, मन्त्री, आमजन, पशु, पक्षी नायाब । मिट्टी से क्या-क्या बने, कोई नहीं हिसाब ।। रंगमंच संसार यह, अभिनेता हम लोग । किसको कैसी भूमिका, मिलने का संयोग ।। जीवन में हो जब कभी, संभ्रम से अनुबन्ध । भरमाती मृग को बहुत, कस्तूरी की गन्ध ।। जीवन के इस भेद को, जानें विरले लोग । पाँचों अपने घर चले, टूट गया संयोग ।। बाह्य चक्षुओं से दिखे, संभ्रम सत्य-समान । जैसे पृथ्वी स्थिर दिखे, दिखे सूर्य गतिमान ।। दुनिया में गुनवन्त जन, होते नहीं अनेक । एक सूर्य, इक चन्द्रमा, ध्रुवतारा भी एक ।। कभी जेठ की धूप है, कभी माघ की धूप । एक धूप को दे दिये, किसने दो-दो रूप ?