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गहमा-गहमी थी कि पुराने सामान को बेच दिया जाए। कुछ तो पैसे की दरकार थी और पुराने सामान को हटाकर नए सामान के लिए स्थान बनाना उद्देश्य। अजीब-सी कशमकश थी, किस सामान को हटाया जाए, किसको रखा जाए, क्योंकि कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे पुरानी यादें नहीं जुड़ी हों या पुराने समय में गहराई के साथ उससे संबंध न रहा हो। शायद इसलिए ये सारे सामान संभालकर रखे गए थे।
सारा बखेड़ा तो नवीन की धर्मपत्नी के आने के बाद शुरू हुआ। पुराने के स्थान पर नए की मुहिम नेहा ने ही छेड़ी है। नवीन ने अपनी ललाट पर जोर देते हुए कहा, ‘‘मैंने हजार बार कहा है कि पुराना सामान नहीं बिकेगा तो नहीं बिकेगा।’’ स्वर में गुस्से की लहर स्पष्ट प्रतीत हो रही थी।
नेहा स्थिति को काबू में करने की कोशिश करती हुई बोली, ‘‘जानू, कूल डाउन, लकड़ी के सामान पर तो दीमक लग रहे हैं। लोहे के सामान पर जंग लग रही है। बेकार हैं, मेरी मानो बेच ही दो।’’
नवीन पहले से ज्यादा भावुक हो गया। आंखों में नमी तैर गई और कहने लगा, ‘‘किस सामान को हटा दूं? इस साइकिल को हटा दूं, जिससे मेरे पापा काम पर जाते थे, मैं भी कालेज इसी से जाता था। इस कोट को बेच दूं, जब भी देखता हूं तो लगता है कि पापा मेरे सामने खड़े हैं। इस पलंग को बेच दूं, जिस पर मेरी मां लोरी गाकर मुझको सुलाती थी और आज भी लगता है कि इस पर मेरी मां लेटी हुई हैं।
मेरे मम्मी-पापा हर साल मेरे जन्मदिन पर कुछ न कुछ खरीदते थे।
ये सभी सामान हैं, जिसके कण-कण में मम्मी-पापा की याद तरोताजा है। मम्मी-पापा को मरे हुए कई साल हो चुके हैं तो क्या उनका वजूद आज खत्म हो गया?
बेच दो सारा सामान, उनकी यादों को भी मेरे दिमाग से मिटा दो।
उसकी आंसुओं से चेहरा और तमतमाया प्रतीत हो रहा था।
नेहा सामने खड़ी बेबस, लाचार नवीन को देख रही है।
शायद पुराने सामान को हटा देने की सनक, नए रिश्ते पर हावी नहीं हो पाई।