बदल गयी आबोहवा, बदल गया अन्दाज़।
नक्कारे में खो गयी, तूती की आवाज़।।
लैला-मजनूँ हो गये, फ़िल्मों से धनवान।
एक इश्क़ होता रहा, हर दिन लहूलुहान।।
विषधर ने तो दे दिया, दंशन का दुर्योग
पर उसके सम्मान में, मंत्र फूंकते लोग।।
बिन खोजे हमको मिले, नटवरलाल अनेक।
खोज-खोज कर थक गये, मिला न गांधी एक।।
आज़ादी अभिव्यक्ति की, मिली सभी को आज।
वैचारिक दुर्गन्ध को, ढोये मगर समाज।।
लोकतंत्र के गाँव में, बसा नया संसार
गलबहियाँ करते रहे, लेकिन रँगे सियार
ऋण की लकुटी टेकता, लोकतंत्र लाचार।
आन-बान के अश्व पर, बैठा भ्रष्टाचार।।
नेता-अफसर जप रहे, लोकतंत्र का मंत्र
डार-डार है लोक तो, पात-पात है तंत्र
कल भी वे सरकार थे, हैं अब भी सरकार
शोषण का उनको मिला, जन्मसिद्ध अधिकार
फ़सल जाति की बो गये, चंद सयाने लोग।
चाहे जितनी काटिए, बढ़ने का ही योग।।
अनबन विश्वामित्र की हुई इन्द्र के साथ।
नदी कर्मनाशा बही, हुआ त्रिशंकु अनाथ।।
बहरों से गूंगे करें, संविधान की बात
अंधे पढ़कर बाँचते, शब्दों की औक़ात
वोट-बैंक के हित झुका, अरि के सम्मुख भाल।
लहू शहीदों का हुआ, जैसे रंग-गुलाल।।
प्रायोजित आतंक है, प्रायोजित है शान्ति।
प्रायोजित है सत्यता, प्रायोजित है भ्रान्ति।।
चेहरे पर चेहरा लगा, सत्य हुआ विद्रूप।
काश! कि वह पहचानता, अपना सुन्दर रूप।।